Friday, March 20, 2015

टचस्क्रीन

टचस्क्रीनों से पटा ये डिब्बा
नज़रें नहीं मिलाता
अपने अपने जग में डूबी
आंखें नहीं उठाता
कुछ के हाथ में फ़ोन है अपना
पर नज़रें हैं भटकीं
पराये स्क्रीन पे चलती फिल्म में
इनकी सांस है अटकी
यह भी ख़ूब कि अपना मॉडल
क्यों न किसी को भाये,
क़ीमत और औक़ात में काहे
फर्क़ समझ ना आये
फर्ज़ी गेम में दौड़-भाग कर
जितने सिक्के बटोरे
उतने भिखारी बगल से गुज़रे
लेकर ख़ाली कटोरे
चैट की चौपाल में चलता
घंटों तक 'तियापा
देख न पाये सीट की आस में
कब से खड़ा बुढ़ापा
बात का ज़रिया बात की ही
जड़ पे है यूं बन आया,
टचस्क्रीनवालों का ये मजमा
दिल को न टच कर पाया
Written on my Samsung phone.

1 comment:

aditi mandlik said...

खुप मस्त..!!