Wednesday, March 14, 2007

यूँ ही कभी

यूँ ही कभी एक शाम ढले
ज्यों सोची ना भी हो ख़्वाबों में,
छूटे पीछे प्यारा लम्हा,
तुम संग मेरी बाहों में.

खामोशी की चादर ओढे
छाए तनहाई की रात,
साँसों की भी शोर लगे
और आए तारों की बारात.

शर्म-ओ-हया का जाल रेशमी
सोचो, यूँ ही हट जाए,
वक़्त भी कते क़तरा-क़तरा
हर दूरी फिर मिट जाए.

बिदा होते होंट मेरे
कानों में तुम से कुछ कहें,
कश्मकश की लहरों में फिर
भीग तुम्हारी रूह बहे.

खामोशी का कर तर्जुमा
समझो फिर तुम मेरी बात,
खुद वारो फिर तुम ही मुझ पर,
अपनी संजोई सौगात...

(An interpretation of a Marathi poem by Kishore 'Saumitra' Kadam.)

1 comment:

चंद्रप्रकाश said...

मिस्टर योगी, तुम तो छुपे रुस्तम निकले। ये तर्जुमा तुमने किया। बहुत बढ़िया है।