Monday, June 19, 2006

कभी कभी मेरे दिल में खयाल आता है...

हमेशा की तरह काम अपनी रफ़्तार से, और विचार अपनी रफ़्तार से चल रहे हैं. उंगलियाँ भले ही keyboard पर थिरक रही हों, मन तो यादों में ऐसे खो रहा है, जैसे घसीटा जाता बच्चा पीछे मुड-मुड कर गुब्बारेवाले को देख रहा हो.

(बच्चा बने इसी मन की खातिर अपने असाईनमेंट के बीच दो पल चुरा कर बीच बीच में यहाँ भी लिख रहा हूँ. शायद इसी कारण सोच- विचारों की कडी थोडी टूटी-सी मालूम पडे...)

वैसे मुंबई मेरे लिये किसी अचरज या कौतूहल का सबब नहीं है. पहले एक साल और आज तीन महीनों से यह मेरा घर-दफ़्तर बनी है, पर इसकी आदत हुए नहीं बनती . शायद गिरगिट भी इतने रंग बदल कर पहले रंग पर लौट आये, पर यह बंबई नगरिया.... !!!! [यह शायद 'जल्दबाज़ी में दिया बयान' हो सकता है शायद मुझे ही रंगीन काँच का नया चश्मा मिला हो!! ; )]

शायद इसका 'श्रेय' मेरे माईक पर छपे 'लोगो' को जाता है. "आप क्या कवर करने आये हैं? यहाँ कोई हीरो-हीरोईन भी होगी क्या? यह टी.वी. पर कब लगेगा? हमें भी बोलना है..." पेज थ्री के लोग, उनके पी. आर. और चमचे, आम जनता.. सभी लोग थोडे-बहुत फर्क से इसी तर्ज पर सवाल करते हैं. मैं यह माईक थामे अगर बाहर जाऊँ तो मेरे इर्द-गिर्द 'लोगों का हुजूम उमडेगा', लेकिन अगर घर लौटते वक्त यह पहचान मेरे पास ना हो, तो मैं भी 'घँटो लावारिस पडे' लोगों में 'शुमार हो जाऊँगा'!!!

मन में एक सवाल यह आता है, कि अगर इस पेशे मे रह कर अगर मैं 'आम जनता' की सभी परिभाषाओं में नही आता, अगर मैं पेज थ्री या राजनीति का मोहरा नहीं हूँ तो मैं आखिर हूँ तो क्या? खुद को पत्रकार कहलाने को जी तो चाहता है, पर मेरी शागिर्दी 'फ़िल्म पत्रकारिता' में सिमटी है. यह बात मुझे तब बहुत अखरती है जब टी.वी पर किसी अभिनेत्री और उसके 'कथित प्रेमी' की exclusive तस्वीरें दिखाई जाती हैं, जब किसी 'विशेष प्रोग्राम' के बहाने किसी अभिनेता और उसके बेटे की भी ज़िंदगी के गडे मुर्दे उखाडे जाते हैं.

आज काम करनेवाले पत्रकारों की पीढी फिर भी नसीबवाली है, जिन्हें नौशाद साहब जैसे संगीतकार की जीवनी और श्रद्धांजलि लिखने का मौका मिला. जब हमारा वक्त आयेगा, तो हम किन नमूनों की कब्र पर शब्दों की चादर चढाएंगे? हिंदी चैनल पर हिंदी में बात करवाने में हम अंग्रेज़ हिंदुस्तानियों पर जो ऊर्जा खर्च करते हैं, क्या वही ऊर्जा मेधा पाटकर के दिल की बात उगलवाने में खर्च करने का मौका मिलेगा?

इसका जवाब ढूँढना भी मुश्किल है क्योंकि इस दुनिया का मोह भी खींचता चला जाता है. कलाकारों से जान पहचान, उन जैसे लोगों को भी सताने का अधिकार, प्रसिद्धी के लिये हमें मिलनेवाली चापलूसी की लगती जाती लत, उनके साथ झलकने के मौके किसे नहीं लुभाएंगे?

फिर एक तरफ़ इस बात से भी राहत मिलती है, कि मैं कम से कम अपने ही चैनल के बने वाहियात धारावाहिकों की वाहियात खबरें बना कर नहीं बेचता!!! यह भी काफ़ी होगा कि इसकी नौबत कभी ना आये!!!

यह सारी बातें उस स्तर से देख रहा हूँ जहां professionally speaking, ना तो मैं एक पिल्ला हूँ ना ही पूरा बढा कुत्ता. तो कल का किसने देखा है? शायद पद संभालने पर मुझे मनचाहा beat मिल जाये!!! और तब मेरा नज़रिया परिपक्व होगा, तो मुझे शायद आज की ही सोच में ही तुक नज़र आये!!!

:)

-योगेश

P.S:- और लिखने का मन कर रहा है, पर कडकडाते A.C. में उंगलियाँ अकड गयीं हैं. शायद आप भी इतना लंबा चौडा ब्लॉग (वह भी हिंदी में) पढ कर ऊब चुके होंगे!!!
मेरा असाइनमेंट भी तो बाकी है... विषय है हिंदी फिल्मों के सूपरहीरो!!!! (समझो न भाई, अभी 'क्रिश' आ रही है, 'अपरिचित' आ चुकी है!!!)

5 comments:

Pratik Pandey said...

योगेश जी, हिन्दी चिट्ठा जगत् में आपका हार्दिक स्वागत् है। उम्मीद है हिन्दी में आपका लेखन नियमित तौर पर चलता रहेगा।

Inspired... said...

योगेश... आपकी बाते बहुत अछ्छी लगी। अपने काम के प्रति आपका जो लगाव है...वह आजकल हर व्यक्ति में नहि दिखाई देता ... आजकल लोग़ तो प्रो़फेशन कुछ कागज़ के तुकडो के लिए भी चुनते है। वैसे यहि कागज़ जिने के लिये आज ज़रुरी है...वह बात अलग है...लेकिन आप जैसे सोचनेवालों कि जरूरत है....।...अमेय

शैलेश श. खांडेकर said...

योगेशजी, आपकी अभिव्यक्ती काफी रोचक लगी । पढते हुँए ऐसे लग रहा था जैसे कोई कविता पाठ के रूप मे पढ रहा हूँ । शुभकामनाएँ ।

Anonymous said...

yogesh aapla kutryvrila lekh aflatun masta watla

Anuradha Kulkarni said...

Chanagla lihila ahe. Hindi varil prabhutva pan changale ahe. Patrakaritet ajoon khas hindi pan shikavtat ka 'sabse tej' var jaun hindi apoap chhan hote?